"चैत्रादी विक्रम संवत् के प्रवर्तक उज्जैनी के माहन चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य परमार "
।। श्री गुरुभ्यो नमः।।
।। जय जय शंकर हर हर शंकर।।
।। शिवाय नमः शिवलिंगाय नमः।।
।। श्री दक्षिण कालीके नमः।।
आज के आधुनिक युवाओं को यह पूछा जाए "की चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य कोन थे?" तो अधिकांश युवाओं को यह पता ही नहीं होगा क्योंकि वामपंथी इतिहासकारोने चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य परमार को एक मिथक राजा कहकर इतिहास की पाठ्यपुस्तको में से लुप्तप्राय ही कर दिया है।
तो आज मेरा लेख इसी विषय पर है- "चैत्रादी विक्रम संवत् के प्रवर्तक उज्जैनी के माहन चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य परमार"
3102 ईसापूर्व में कलियुग के आंरभ के साथ ही भागवान श्रीकृष्ण के गोलोकागमन एवं महाराज युधिष्ठिर के राज्यत्याग के पश्चात भारतीय इतिहास के केंद्रीय व्यक्ति अगर कोई थे तो वो थे उज्जैनी के माहन चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य परमार। भगवान श्रीराम ओर श्रीकृष्ण के पश्चात अगर किसी व्यक्ति पर अधिक मात्रा में साहित्य उपलब्ध हैं तो वह है सम्राट विक्रमादित्य पर। सम्राट विक्रमादित्य ने भारतीय पंचांग को संशोधित कर आपना चैत्रादी विक्रम संवत् चलाया जो आजभी भारतीय त्योहारों की गणना के लिए मानक सिद्ध है। यह कहना कितना हास्यास्पद है की जीस विक्रम संवत् के आधार पर हमारे धार्मिक कृत्य होते आरहे है, जीस संवत् में हमारी भारतीय संस्कृति की विगत दो सहस्त्र वर्षों की कथाएं अंकित है उस महान विक्रम संवत् के प्रणेता कोई कल्पित विक्रमादित्य हो।
भारतीय और सम्बध्द विदेशी इतिहास एवं साहित्य के पृष्ठों पर, लोकप्रिय कथाओं में,भविष्य पुराण, कथासरित्सागर, बृहत्कथामञ्जरी, सिंहासनद्वात्रिंशक, वेतालपंञ्चविंशति, प्रभावकचरित, गाथासप्तशती, ज्योतिर्विदाभरण इत्यादि एवं जैन-बुद्ध आदि जन श्रुतियों में , अभिलेख (एपिग्राफी ), मौद्रिक तथा मालव और शकों की संघर्ष गाथा आदि में उपलब्ध विभिन्न स्त्रोतों तथा उनमें निहित साक्ष्यों का परिक्षण सिध्द करता है कि "ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में सम्राट विक्रमादित्य का अस्तित्व था , वे मालव/अवन्तिका गणराज्य के प्रमुख थे ,उनकी राजधानी उज्जैनी थी , उन्होंने अवन्तिका को शकों के अधिपत्य से मुक्त करवाया था और इसी स्मृति में चलाया संवत विक्रम संवत कहलाता है |
चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य परामारवंशिय राजा गन्धर्वसेन के पुत्र ओर नीतिशतकम् के रचयिता राजर्षि भर्तृहरी के अनुज थे। इनकी माता का नाम वीरमती था। भविष्य पुराण के अनुसार इनका जन्म भागवान शंकर के प्रसाद से उन्हीके अंशावतार के रुपमें हुआ था जीसका एक ही लक्ष्य था वैदिक-धर्म-ध्वंसक शक आक्रांताओं का विनाश करना। यह वह काल था जब शक आक्रमनकारीयो के कारण धर्म का ह्रास (क्षय) होरहा था और उनके प्रचण्ड आघात से समग्र भारत तिलमीला उठा था तब विक्रमादित्य ने 3 लाख शको का नाश कर उने परास्त करके भारत भूमि के बाहर खदेड़ दिया ओर पुनः वैदिक धर्म को प्रतिष्ठित किया। शको का नाश करने के कारण सम्राट विक्रमादित्य को शकारी (शको का शत्रु ) की उपाधि प्राप्त हुईं । इसी विजय की उपलक्ष पर एवं भर्तृहरी के विरक्त होजाने के पश्चात 57 ईसापूर्व (57 BCE) में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा कि तिथि को सम्राट विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ ओर उन्होंने इसी दिवस पर चैत्रादी विक्रम संवत् का शुभारंभ किया। उज्जैनी नगर को राजधानी बनाकर समग्र भारतवर्ष पर उन्होंने एकछत्र राज किया। सम्राट विक्रमादित्य न्यायप्रिय राज थे इनकी न्यायप्रियता और सहस को लेकर सिंहासन बत्तीसी और बेताल पच्चीसी नामक कथाएं आज भी भारतीय जनमानस बहुत प्रसिद्ध है। इनकी कीर्ति में इनके सभा (दरबार) के नवरत्नों का भी बडा़ योगदान रहा है।
धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहः शंकूवेताळभट्टघटकर्परकालिदासाः।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेस्सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥
धन्वन्तरि, क्षपनक, अमरसिंह, शंकु, खटकरपारा, कालिदास, वेतालभट्ट, वररुचि और वराहमिहिर उज्जैन में महाराज विक्रमादित्य के राज सभा (दरबार) का अंग थे। इनमें महाकवि कालिदास तथा ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान पंडित वराहमिहिर का नाम प्रसिद्ध है।
कालिदास ज्योतिर्विदाभरण के अन्तिम २२वें अध्याय में विक्रमादित्य, उनकी सभा के विद्वानों का परिचय तथा अपनी कृति का समय देते है।
श्लोकैश्चतुर्दशशतै सजिनैर्मयैव ज्योतिर्विदाभरण काव्य विधानमेतत् ॥२२.६॥
विक्रमार्कवर्णनम्-वर्षे श्रुति स्मृति विचार विवेक रम्ये श्रीभारते खधृतिसम्मितदेशपीठे।
मत्तोऽधुना कृतिरियं सति मालवेन्द्रे श्रीविक्रमार्क नृपराजवरे समासीत् ॥२२.७॥
अर्थ- १४२४ श्लोकों का यह ज्योतिर्विदाभरण मालवेन्द्र विक्रमादिय के आश्रय में लिखा गया जो १८० देशों पर श्रुति-स्मृति-विचार द्वारा शासन करते हैं।
नृपसभायां पण्डितवर्गा-शङ्कु सुवाग्वररुचिर्मणिरङ्गुदत्तो जिष्णुस्त्रिलोचनहरो घटखर्पराख्य।
अन्येऽपि सन्ति कवयोऽमरसिंहपूर्वा यस्यैव विक्रमनृपस्य सभासदोऽमो ॥२२.८॥
सत्यो वराहमिहिर श्रुतसेननामा श्रीबादरायणमणित्थकुमारसिंहा।
श्रीविक्रमार्कंनृपसंसदि सन्ति चैते श्रीकालतन्त्रकवयस्त्वपरे मदाद्या ॥२२.९॥
नवरत्नानि-धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंहशङ्कुर्वेतालभट्ट घटखर्पर कालिदासा।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥२२.१०॥
अर्थ- मेरे अतिरिक्त कई विद्वान् हैं-शङ्कु, वररुचि, मणि, अङ्गुदत्त, जिष्णुगुप्त ( ज्योतिषी ब्रह्मगुप्त के पिता), त्रिलोचन, हर, घटखर्पर, अमरसिंह, कालतन्त्र लेखक (कृष्ण मिश्र), सत्याचार्य (ज्योतिषी), वराहमिहिर, श्रुतसेन, बादरायण, मणित्थ, कुमारसिंह। उनकी सभा के ९ रत्न हैं-धन्वन्तरि (तृतीय, वर्तमान् सुश्रुत संहिता के लेखक), क्षपणक (वर्तमान् में उपलब्ध जैन शास्त्रों के लेखक), अमरसिंह (अमरकोष), शङ्कु (भूमिति = सर्वेक्षण), वेतालभट्ट (पुराण का नवीन संस्करण), घटखर्पर (तन्त्र), कालिदास, विख्यात वराहमिहिर, वररुचि (पाणिनि व्याकरण पर वार्तिक लिखने वाले)।
ज्योतिर्विदाभरण में महाकवी कालिदास ने सम्राट विक्रमादित्या के पराक्रम का भी वर्णन दिया है-
यो रुक्मदेशाधिपतिं शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनीं महाहवे।
आनीय सम्भ्राम्य मुमोच यत्त्वहो स विक्रमार्कः समसह्यविक्रमः ॥ २२.१७ ॥
तस्मिन् सदाविक्रममेदिनीशे विराजमाने समवन्तिकायाम्।
सर्व प्रजा मङ्गल सौख्य सम्पद् बभूव सर्वत्र च वेदकर्म ॥ २२.१८ ॥
अर्थ - विक्रमादित्य जैसा प्रतापी और कौन हो सकता है जिसने महायुद्ध में रुक्मदेश अधिपति शकेश्वर को बन्दी बना कर उज्जैन लाये तथा नगर में घुमा कर छोड़ दिया? उनके वेदानुसार शासन के कारण लोगों में सौख्य और सम्पद है।
भविष्य पुराण के अनुसार कलियुग के तीन सहस्र (तीन हजार) वर्ष बीतने पर सम्राट विक्रमादित्य का आविर्भाव हुआ, जिन्होंने सौ वर्षों तक शासन किया। सम्राट विक्रमादित्या का काल 82 ईसापूर्व से लेकर 19 ईसवी तक था (82 BCE to 19 AD)। उनके मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र देवभक्त ने 10 वर्ष तक शासन किया। भविष्य पुराण से यह भी पता चलता है कि उनके मृत्यु के पश्चात उनका माहन साम्राज्य कई राज्यों में विभक्त होगया, ओर पुनः वैदिक धर्म का ह्रास होने लगा तब शक आक्रांताओं ने इस बात का फायदा उठाकर पुनः भारतवर्ष पर आक्रमन शुरू किये ओर शको ने राजा देवभक्त को मार कर उज्जैनी अपने आधिन करदी तब सम्राट विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन ने शकोका समुल नाश कर पुनः वैदिक धर्म को भारतवर्ष में प्रतिष्ठित किया। इस विजय के उपलक्ष पर सम्राट शालिवाहन ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को 78ईसवी (78 CE) में शालिवाहन शक (शकान्त संवत्) का शुभारंभ किया। अपने दादा विक्रमादित्य के समान शालिवाहन भी वीर पराक्रमी राजा थे।
सम्राट विक्रमादित्य ने लुप्त हो चुकी उस अयोध्यानगरी की पुनः खोज कर वहा श्रीरामजन्मभूमी पर एक 84 खम्भोंवाले भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतवर्ष के अनेक तीर्थस्थलों व मंदिरों का जीर्नोधार करवाया था। उनका साम्राज्य अरबदेश तक फैला हुआ था और वह कई विद्वानों को भेजकर सभ्यता संस्कृति का प्रचार प्रसार किया था। इस प्रकार भारतीय सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान के संरक्षण और प्रचार प्रसार में चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य परमार का अद्वितीय योगदान है।
एक भ्रम दुर करने की आवश्यकता है कृत/मालवागण/कार्तिकादी विक्रम संवत् के प्रणेता चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ना हो कर कोई दुसरे विक्रमादित्या थे। क्योंकि वेदवीर आर्यजी की पुस्तक "The Chronology of Ancient India: Victim of Concoctions and Distortions" का अध्ययन करने पर यह पता चलता है कि कृत/मालवागण/कार्तिकादी विक्रम संवत् की शुरुआत 718 ईसापूर्व (718 BCE) में हुई ओर इस संवत् के प्रणेता विक्रमादित्य प्रथम थे।
चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य परमार का आज भी भारतीय जनमानस के हृदय में उनका एक महत्वपूर्ण स्थान है।
--- ऋषिकेश रामकृष्ण वानोडे
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा
विक्रम संवत् 2077
शालिवाहन शक 1942
25 मार्च 2020
स्त्रोत- Shri Arun Kumar Upadhyay's article on Vikramaditya and Kalidasa https://www.scribd.com/document/139380387/Vikram%C4%81ditya
https://www.samachar24x7.com/literature/writing/how-many-kalidas-were-there-in-indian-history-445495
https://archive.org/details/puran_bhavishya/page/n3/mode/2up
https://www.academia.edu/27780697/The_Chronology_of_Ancient_India_Victim_of_Concoctions_and_Distortions_by_Vedveer_Arya
http://parichaydharmabharat.blogspot.com/2017/04/blog-post_56.html?m=1